
जिसने स्वेद बहाया अपना
ईंट चढ़ाई, गारा ढोया।
भूखा रहा स्वयं वो ही
जिसने माटी मे पोषण बोया।
जिसके श्रम से महल बने हैं,
वो ही फुटपाथों पर सोया।
चौकी मे थानो मे जिनके,
उल्टे सीधे काम लिखे है।
पुल के शिला पटल पर देखो,
ऊपर उनके नाम लिखे हैं।
रंच मात्र विश्वास नही विधि मे,
वो तो बने विधायक हैं।
दौलत के बल बूते पर
जनता के कृत्रिम नायक हैं।
शायद कोई सुने हमारी,
हकदारो को मान मिले हैं।
पद उपाधि कोई भी ले
श्रमजीवी को सम्मान मिले।
परंम्पराओं की राहों में
कांटे बोकर जाऊंगा।
जिनका कोई नही हुआ है,
उनका होकर जाउंगा।
जिनको धन वैभव चहिए,
वे विरुदावलियां गायेंगे।
जिन्हे प्रसिद्धि चहिए,
वे सब भंवरे कलियां गायेंगे।
मै अभाव की धीमी ध्वनि हूं,
मै अभाव ही गाऊंगा।
मैं बुधई, निरहू, मंगल का
सच्चा शौर्य सुनाउंगा।
कर्जा लेकरके बिटिया की
शादी कैसे करता है ।
जीने की आशा मे निर्धन ,
थोड़ा – थोड़ा मरता है ।
बिना दाम के बिना काम के ,
जीवन कैसा होता है ।
माघ पूस की सर्दी भी ,
ज्वाला जैसी हो जाती है ।
भूखा ढाबे का छोटू ,
जब गाली खाकर सोता है।
जिम्मेवारी का कर्जा है ,
खुल कर स्वांस नही लेता ।
कितना भी बीमार रहे ,
बुधई अवकाश नहीं लेता ।
माननीयों की बात करूं यदि ,
फूलों सा मुरझा जाते हैं ।
थाने से नोटिस आते ही ,
अस्पताल मे आ जाते हैं ।
जिनका पूरा जीवन है ,
एश्वर्यपूर्ण अवकाशों का ।
सहज श्रेय मिलता है उनको ,
अति श्रम साध्य विकासों का ।
कहो भला अब किसको लघुतर ,
किसको बोलो बड़ा लिखूं ।
किसे बेल बोलूं परिजीवी ,
किसे वृक्ष सा खडा लिखूं ।
जिसको जो कहना है कहले ,
अलग गीत मैं गाऊंगा,
मैं बुधई, निरहू, मंगल का
सच्चा शौर्य सुनाउंगा।
-महेश मिश्र “मानव”
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