
(1)
गुण गाते है ज्ञानी जन सदा
तेरे स्वरूप और स्वभाव की
हे नारी तू सचमुच में ही
साकार प्रतिमा है स्नेह भाव की।
तू पूजा के योग्य है सहचरी
तेरी कीर्ति मैं कैसे गाऊं
है गंगा सम निर्मल चरित्र तेरा
किस किस रूप में तुमको ध्याऊं।
सिद्धार्थ को बुद्ध बनाया तूने
तुलसी को बनाया संत सिरोमणी
कभी अनुचरी माना निज को
पतिव्रत के सन्मार्ग पर खड़ी।
प्रेम सुधा छलकाती हर क्षण
तुझ पर पौरुष का प्रकाश है
हे नारी तू नर से उपेक्षित है
फिर भी नर के, करती तम का नाश है।
(2)
हे नारी तेरे गीत मैं कैसे गाऊं
गाता हूं तेरे गीत जब भी
घिर आते हैं नयनों में मेंघ
कई प्रताड़ना और बलात्कार की
उभर आती है काली रेख।
कोटि देव ऋषि, महर्षि जन
तेरा चरित्र अपार बतलाते हैं
आवश्यकता होने पर ये भी
तेरे रूप धर धरा पर आते हैं।
पर तू भी तो भूल गई है आज
अपने इस महति गरिमा को
काश सती सावित्रि अनसुईया की
जान लेती पतिव्रत की महिमा को।
न हो सकती बलात्कार कभी
न प्रताड़ना ही सहती तू
जान लेती गर अपने तेज का प्रभाव
अब भी निर्मल गंगा सी अविरल बहती तू।
-प्रमोद कश्यप “प्रसून”
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