
मैं करती हूं हर बार बात संभालने की कोशिश,
और तुम बाल की खाल निकालने की कोशिश।
कभी तो वक्त का सिक्का मेरे हक में भी उछलेगा,
नाकाम है तुम्हारी हर बार मुझे यूं उछालने की कोशिश।
लाज़िम तो नहीं कि हर बार ही लडखड़ाऊंगीं,
लाख करो इल्जाम पर इल्ज़ाम डालने की कोशिश।
सोच क्या रही है ‘अपराजिता’, ये समंद्र ही तो है,
एक बार कर तो ज़रा इसे तू लांघने की कोशिश।
– अमिता सिंह “अपराजिता”

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