
न जाने क्या कशिश है बम्बई तेरे शबिस्तां में
कि हम शामे-अवध, सुब्हे-बनारस छोड़ आये हैं
पपीहे बोलते हैं, कूकती हैं कोयलें जिनमें
हमारे दिल पे उन गाते हुए बाग़ों के साए हैं
हमारे जिस्म कुन्दन हो गये हैं तेरी किरनों से
तेरे चश्मों की चांदी ने हमारे मुंह धुलाए हैं
तेरे ज़िंदा की तारीकी में रातें हमने काटी हैं
तेरी सड़कों पे सोए, तेरी बारिश में नहाए हैं
कभी अश्कों के तारे आस की पलकों से टूटे हैं
कभी उम्मीद के दामन में मोती जगमगाए हैं
मगर फिर भी हमारा आलमे-मिहर-ओ-वफ़ा यह है
कि तुझको लखनऊ की तरह सीने से लगाए हैं
– अली सरदार जाफ़री
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