
क्षुद्र स्वार्थ की जिंदगी
जी रहा है आदमी
आदमी का खून पी रहा है आदमी।
देखने में जिंदा है
पर अंदर से मरा है
स्वयं के खोदे कब्र में
आदमी आज गड़ा है।
आज बहुतायत आदमी
आदमी का हमशक्ल है
पर आदमी नहीं है
केवल आदमी का नकल है आदमी।
लड़ रहा है आदमी खुद से
पर अड़ रहा है
गलती खुद कर रहा है
दोष दूसरों पर मढ़ रहा है।
फूलों की चाह तो है
पर वह कांटे बो रहा है
अमृत समझकर
ज़हर को पी रहा है।
भ्रम में जी रहा है आदमी
प्याज की भांति
छिलका दर छिलका
उतर रहा है
जीने का ढंग बदल रहा है
गिरगिट की तरह
रंग बदल रहा है।
दोहरी जिंदगी जी रहा है आदमी
जलन के साये में पल रहा है
जलाने के फेरे में वह
खुद जल रहा है।
आदमी आखिर ऐसा
क्यो कर रहा है?
चार दिन की ज़िंदगी में
हर पल मर रहा है आदमी।
» प्रमोद कश्यप “प्रसून”
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