
वो स्त्री जो सबके लिए होती है खड़ी,
सम्भालती है दायित्व, तोड़ती है दायरें
बिना वजह और निभाती हैं रिश्ते,
एक दिन सब कुछ छोड़कर
जाने किस गुमनामी में खो जाती है।
शायद खुद से भी मुक्त होना चाहती है।
स्त्री क्यों आज भी शब्दों में जकड़ी और
मर्यादा के नाम पर त्याग दी जाती है? आखिर अपने अस्तित्व के लिए
क्यों बार-बार
कभी समाज कभी अपनों
कभी अपने अन्तर्मन से संघर्षरत पायी जाती है।
दूसरों को देकर जीवन
अपने लिए मृत्यु चुनने पर विवश
वो स्त्री हममें से ही कोई एक होती है।।
आखिर ३३ प्रतिशत आरक्षण में
दहशत और दर्द उनके हिस्से से बाहर क्यों नहीं जाता।
कब तक अपने जीवन के हर पड़ाव पर
द्वंद करने की कीमत बस स्त्री चुकाती है।
मां, बहन, पत्नी, बेटी, मित्र, सहयोगी, के रूप में
कीमत के लिए तैयार सदैव रहती हुई स्त्री,
समाज के कीचड़ को समेटकर
अपने दामन से पोंछती हुई
वो कोठे की शोभा भी बन जाती है
और अन्य स्त्री की गाली से परिभाषित की जाती
वो स्त्री हममें से ही एक है।।
स्त्री एक प्रश्न और स्त्री एक उत्तर
प्रश्नोत्तरी सा जीवन स्त्री निभाती हुई
अंततः देहावसान में समाप्त हो जाती है।।
-अमिता सिंह “अपराजिता” की कलम से
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