अतुल्य भारत चेतना
पेड़न पात पुरान तज्यों
अरु नूतन कोपल बेल सजायों।
खेतन फूलि गई सरसों
अरु आमन बौर सुगन्ध उडायों।
सेज के फूल हैं शूल भयौं जस ‘
सोवत जागत खार चुभायों।
लागे वियोग की राति पहाड़ सी,
कैसै कहूं दिन कैसो बितायों।
आयो बसन्त कि बैरी अनंग ने
ऐसो सुगन्ध को जाल बिछायों।
चैन नही दिन रैन कहीं,
बिन साजन के फिर फागुन आयों।
पन्थ निहारत नैन थके ,
अरु हाथ थके लिखिकै नित पाती।
आगि वियोग की ऐसी लगी
मृदु देह भयी जरिकै जस राखी।
ऐसे घनेर अन्हेर किह्यौ काहे,
दीपक दूरि किहयौं काहे बाती।
सौतनि को छल छन्द फसें जाने,
ऐसौं ही नेह के गेह भुलायो।
कौन सो कारण कन्त कहौ,
एक साल गये कछु हाल ना आयो।
सांझ ना भावे कि भोर ना भावे,
ना चांद लुभावे चकोर ना भावे।
राग बसन्त की कोयल गावति ‘
पापी पयीहा भी रोज चिढ़ावे।
काहे दिह्यौ दुख दूरि गयो काहे ‘
काहे वियोगिनि हाल बनायो।
चैन नही दिन रैन कहीं
बिन साजन के फिर फागुन आयो।
-महेश मानव