अतुल्य भारत चेतना
पुराण कहते हैं कि सभी पातकी जीव यावज्जीवन अपनी सामर्थ्य से अधिक शक्ति लगाकर भी उतनी पापराशि अर्जन नहीं कर सकते जितना, एक भगवन नाम सभी पातको को दूर करने की शक्ति रखता है।
नाम्न्यास्ति यावती शक्ति पापनिर्हरणे हरे:। तावत कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जन:।।
जो मनुष्य गिरते, पैर फिसलते, अंग भंग होते, सांप के डसते, आग में जलते तथा चोट लगते समय विवशता से भी हरि हरि कहकर भगवान के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यमयातना का पात्र नहीं रह जाता। उनका सर्वविध कल्याण होता है।
पतित:स्खलितो भग्न:संदष्टस्तप्त आहत:।
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हतियातनाम।।
अस्तु भगवान का नाम किसी भी प्रकार उच्चारण किया जाए, वह प्राणी के सर्वविध अघवृत्ति का समुच्छेदन करता है फिर भी जगतपवित्रं हरिनामधेयं क्रियाविहिनं न पुनाति जन्तुम।
परमपिता के नाम यद्यपि जगत को पवित्र करने वाले है परन्तु धर्म-सत-क्रिया विरद्ध प्राणी को वे पवित्र नहीं करते। जिस प्रकार महौषधसेवन रोग निवृत्ति के प्रति कारण अवश्य है, परन्तु उसके साथ सुपथ्य सेवन तथा कुपथ्य परिवर्जन भी आवश्यक है। सुपथ्य सेवन तथा कुपथ्य परिवर्जन के साथ यदि औषधि का प्रयोग नहीं किया गया तो वह सर्वविध गुणगणयुक्त होते हुए भी हितावह नहीं होती। इसी प्रकार अधर्मी व्यक्ति का भगवन्नाम रुपी औषध परम कल्याण नहीं करता।
आलेख-प्रमोद कश्यप,
रतनपुर छत्तीसगढ़