
लो आ गई बाज़ार में तैयार लीचियाँ
बागान-ए-मुज़फ़्फ़र की मज़ेदार लीचियाँ
कर देती हैं अपना मुझे बीमार लीचियाँ
जब कनखियों से देखती हैं यार लीचियाँ
किसको न लुभा लेंगी ये अपनी अदा से हाए
ये सुर्ख़ ये ताज़ा ये चमकदार लीचियाँ
अंदर से से हैं मख़मल सी प बाहर से खुरदरी
बिल्कुल ही तेरे जैसी अदाकार लीचियाँ
पेड़ों से इन्हें तोड़िये बा इश्क़ बा अदब
यूँ ही नहीं उतरती हैं ख़ुद्दार लीचियाँ
छीलें तो सलीक़े से कि नाख़ून लग न जाए
कर देती हैं रस की बड़ी बौछार लीचियाँ
होली न दशहरा है मगर माह-ए-जून में
ख़ुद में ही समेटे कई त्यौहार लीचियाँ
मैं जितना तलबगार हूँ इन लीचियों का दोस्त
मेरी भी हैं उतनी ही तलबगार लीचियाँ
-प्रबुद्ध सौरभ
Subscribe our YouTube channel
