
घर से भागे लोग
तथागत होने का करते हैं दावा।
सावधान युग !
पहचानना बहुत मुश्किल है
इन छलियों का ढंग नया है
भीतर बरमूडा त्रिकोण है
बस ऊपर से बोधगया है
पीड़ाओं को डस लेता है
इनका कद काठी
पहनावा।
सावधान युग !
रटे रटाये उपदेशों में
भावों के भी रंग भरे हैं
वाणी के चन्दन के भीतर
विष से भरे भुजंग भरे हैं
इनका मुख ऐसा गोमुख है
जिसमें
बहता है बस लावा।
सावधान युग !
कभी त्यागने और भागने
का अंतर हम समझ न पाये
इसीलिये तो युगचेता बन
हर दिन नये तथागत आये
कई पीढ़ियाँ झेल रही हैं
सदियों से
बस यही छलावा।
सावधान युग !
-ज्ञान प्रकाश आकुल

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