
ज़िन्दगी के दिन ढले अब शाम आई
अंशुपति ठंडे पड़े पर
सब दिशाएँ जल रही हैं
सब उलट है , सब उलट है , सब उलट है
(1)
थी अभीप्सा हर्ष की पर पीर का कानन मिला
झाड़ियाँ,पाषाण, कंटक थे चुभे उर-तल छिला
विफलताओं से घिरा मन किन्तु अब भी जोश है
एषणाओं से भरा अब भी हृदय का कोष है
ज़िन्दगी भर चाहतों ने मात खाई
शूल अन्तस में गड़े पर
एषणाएँ पल रही हैं
सब उलट है , सब उलट है , सब उलट है
(2)
ज़िन्दगी के गूढ़ प्रश्नों से हुआ जब भी ख़फ़ा
दुख उसी पल बोल बैठा ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा
वेदना की अग्नि ने मुझको तपा कुन्दन किया
पीर में जितना पला उतना प्रवण लेखन किया
ज़िन्दगी को पीर ने राहें दिखाई
प्रश्न सम सुख थे खड़े पर
वेदनाएँ हल रही हैं
सब उलट है , सब उलट है , सब उलट है
(3)
एषणा है शर्वरी में दीप सा उत्तम दिखूँ1
एषणा है मैं सदा उत्कृष्ट व अनुपम लिखूँ
अब तलक जो कुछ लिखा है ज्ञात सब कच्चा लिखा
हाँ ! मगर जो कुछ लिखा दिल से लिखा सच्चा लिखा
ज़िन्दगी को लेखनी ही रास आई
हैं भले कच्चे-घड़े पर
सर्जनाएँ चल रही हैं
सब उलट है , सब उलट है , सब उलट है
-योगी योगेश शुक्ल
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