
देश गांधी का खुले बाजार जैसा हो गया है।
कर्म का हर क्षेत्र कारोबार जैसा हो गया है।
बिक रही हर चीज मे ईमा न भी है बिक रहा।
बिक रही इन्सानियत इन्सान भी है बिक रह।
माना कि बेबस गरीबी बिकने को मजबूर है।
शौक से देखो मगर धनवान भी है बिक रहा।
थीं किताबे ही बिकाऊ ज्ञान भी बिकने लगा है।
हो अगर बटुआ भरा सम्मान भी बिकने लगा है।
सूबेदारो की नियत मे खोट होती है सुना था।
सुना है कि आज कल सुल्लान भी बिकने लगा है।
बडी है फेहरिस्त इस बाजार में सामान की ।
है मगर अफसोस कि इन्सान भी बिकने लगा है।
अब शियासत और तिजारत हू ब् हू इक शक्ल है।
गौर से देखे तो सब व्यापार जैसा हो गया है ।
देश गांधी का खुले बाजार जैसा हो गया है।
कर्म का हर क्षेत्र कारोबार जैसा हो गया है ।
-महेश मिश्र (मानव)
subscribe our YouTube channel
