
बुद्धि वितरण केन्द्र सुरपुर में विधाता का खुला
भूमि के सब प्राणियों को था लिया विधि ने बुला।
था तना विस्तृत चँदोवा भव्यता बिखरी हुई
स्वर्ग में ही स्वर्ग से बढ़कर छटा निखरी हुई।
स्वर्ण के आसन सजे शोभा बढ़ाते मंच का
बीच में शोभित महा आसन वरद सरपंच का।
अतिथियों के हेतु शुभ आसन सजे थे सामने
नारियों – नर हेतु आसन पृथक अन्तर से बने।
दिव्य थी सारी व्यवस्था अति रुचिर जलपान की
चाट , जलजीरा , बतासे और मधु मिष्ठान की।
था बना रमणीय अति नव भव्य शापिंग माल भी
न्यून दर पर मिल रहे थे वस्त्र ,गहने , शाल भी।
वीथिका में चारुता के हेतु कुछ पार्लर खुले
नारियों के झुण्ड सजने हेतु मानों हों तुले।
कुछ समूहों में दिखीं बस चाट पर ही टूटती
और कुछ स्वादिष्ट मोदक का मधुर रस लूटती।
कुछ गयीं उस माल मे वस्त्रादि , गहने के लिये
मिल रहा जो न्यून दर पर, प्राप्त करने के लिये।
एक दल उसमें अधिक सौन्दर्य का शौकीन था
पार्लर में ही सवँरने में विहँस तल्लीन था।
हुईं अधिकाधिक रमणियाँ व्यस्त पार्लर माल में
बुद्धि लेने को उपस्थित अल्प थीं कुछ हाल में।
हाल में बैठे पुरुष सब शान्त होकर धैर्य से
थे प्रतीक्षारत प्रबल हों बौद्धिक ऐश्वर्य से।
जब विधाता ने समय पर बुद्धि का वितरण किया
हाल में जो थे उपस्थित सब उन्हीं को ही दिया।
देर से आ नारियों ने हक स्वयं का माँग कर
कर दिया विधि को अचम्भित हैं बची ये जानकर।
कहा विधि ने पास मेरे अब न कुछ अवशेष है
जो रहा सबको दिया किससे भला क्या द्वेष है?
पक्षपाती आप हैं विधि , नारियाँ कहने लगीं
दे दिया नर को सभी कुछ , दोष वे मढ़ने लगी।
बल उन्हीं के पास था ,अब बुद्धि भी उनको दिया
आप भी नर , इसलिए ही पक्ष है उनका लिया।
और नारी जाति को अबला बनाया आपने
भेद निज सन्तान में ही कर दिखाया बाप ने।
देर होने से किसी का हक कहीं जाता नहीं
बाद में हो जन्म तो क्या बाल हक पाता नहीं?
सब उन्हीं को दे दिया , क्या कुछ हमारा हक नहीं
बिन रुदन के दुग्ध क्या पाता कभी बालक नहीं?
विहँस कर विधि ने कहा लो यह अलौकिक दान तव
सब बलों से भी बली होगी तुम्हारी मन्द रव।
सुन तुम्हारे बैन मीठे , मुग्ध नर खिंच आयगा
और चारण के सदृश तारीफ तेरी गायगा।
दर बढ़ायेंगी तुम्हारा संग मधु मुसकान यों
स्वर्ण में मिल कर सुहागा है बढ़ाता मान ज्यों।
मन्द हासों पर तुम्हारे , नर फिदा हो जायगा
बँध तुम्हारी ही परिधि में,खुद न कुछ कर पायगा।
रूठ कर यदि मूक बन बैठी, सुनिश्चित जान लो
उच्चरित विरुदावली गुंजित करेगा मान लो।
जो दिया तुमको चपल दृग , देख वह होगा विकल
एक इंगित मात्र से हो जायगा अतिशय निबल।
एक ही क्षण में हँसी औ’ घोर रोदन की कला
दे रहा सुविशेष गुण यह , मत बनो तुम निर्बला।
रूप पहले दे चुका हूँ , अब नहीं है कुछ कमीं
अप्सरा बन तुम जगत की , जीत लो सारी जमीं।
इन कलाओं से अभय होकर रहो भू पर सदा
बुद्धजन आने न देंगे , देवि तुम पर आपदा।
-विनोद शंकर शुक्ल ‘विनोद’
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