अतुल्य भारत चेतना
प्राचीन काल में भारत को कभी सोने की चिड़िया, पृथ्वी का स्वर्ग, संसार का सिरमौर और धर्म की धूरी समझा जाता था। कहते हैं कि इस धरा पर जन्म लेने के लिए कभी देवता भी तरसते थे। यहां की संस्कृति और ज्ञान सूर्य का प्रकाश सारे संसार को प्रकाशित करती थी। इसी कारण इस देश को जगत गुरु कहा जाता था।
इस प्रसंग में मुझे कविवर इकबाल का यह सेर याद आता है-
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शमये अदब न था जब
यूनां के अंजुमन में
ताबा था मेहरे दानिश
इस वादिये कुहन में।
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जब यूनान के आंगन में सभ्यता की ज्योति भी नहीं जली थी, प्राचीन भारत सभी दिशाओं में अपनी सभ्यता की ज्योति का प्रकाश बिखेर रही थी। तब आज की तरह यह धर्म निरपेक्ष न होकर केवल हिन्दू देश था। यहां की संस्कृति भी पूर्ण हिन्दू थी। इसी कारण उस समय विश्व के अनेक देश , जो यहां की सभ्यता और संस्कृति की ज्योति से ज्योतित हुए , सभी भारत में मिल गये। इसकी सीमा दक्षिण में सुमात्रा , जावा, मलेशिया और इसके आगे फारमुसा तक बढ़ गये। अफगानिस्तान, काबूल और कांधार भी कभी इस भारत के ही अंग थे। महाभारत में कांधार का ही गांधार नाम से वर्णन हुआ है। महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी इसी कांधार देश की राजकुमारी थी। पश्चिम में सीरिया आर्मीनिया तक कभी भारतीय बस्तियां थी। अक्काद और वाक्जकुई से प्राप्त लेखो से पता चलता है कि कभी केस्पीयन सागर के तट पर देवी की प्रतिमा वाले मंदिर थे। अर्थात यहां भी हिन्दू बस्तियां थी।
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भारत और इसकी संस्कृति की इतनी विशालता का प्रमुख कारण यह था कि मनुष्य की आत्मा उस समय जाति, लिंग और संप्रदाय की कारा से मुक्त थे। राम ही रहमान थे, कृष्ण ही ईसा थे। यहीं हिन्दुत्व का आधार था, समता का आचार था। इसी कारण इस देश की सनातन संस्कृति विश्व में फली फूली और अपनी महक से सारे मानव जाति का मन मोह लिया, विश्व मानव को अपने अधिन कर लिया। कालांतर में राजनीतिक कुचक्रो के कारण हमारा दृष्टिकोण व्यापक न रहकर संकुचित हो गया और आज हम वो नहीं रहे, जो कभी थे। हमारा भारत वो नहीं रहा, जो कभी था।
आलेख -प्रमोद कश्यप, रतनपुर (छ.ग.)