
मै माटी की भूख लिखूगा मै सरिता की प्यास लिखूंगा।
जब भी मेरी कलम उठेगी, पीड़ा का एहसास लिखूंगा।
चाह नही श्रंगार लिखूं दरबारो का सम्मान लिखूं ।
चाह नही है अतिशयोक्तिमय सत्ता का गुणगान लिखूं।
चाह नही है हास्य लिखूं या राजनीति के गुण गाऊं।
चाह नही कृत्रिम गाथाओं से कवियों मे यश पाऊं।
मै गरीब बुधई के घर होने वाला उपवास लिखूंगा।
जब भी मेरी कलम उठेगी पीड़ा का एहसास लिखूंगा।
सौ मन पैदा करके ननकू झूल गया क्यो फासी पर।
टी. बी. पर फिर भी चर्चा है नेता जी की खासी पर।
जहां खिलौने होने चहिए हसिया है उन हाथो में।
सूखे होठ बुझा चेहरा नैराश्य भरा है आखों में।
बचपन को रद्दी चुनते देखा मैने बाजारो मे ।
नेता जी का हसता फोटो छपा हुआ अखबारों मे।
अचरज मुझको होता है ये दावे कैसे करते है ।
आय दोगुनी कर दी सबकी फिर किसान क्यो मरते है।
छद्म व्यवस्था के विकास पर व्यंग भरा उपहास लिखूंगा।
जब भी मेरी कलम उठेगी पीड़ा का एहसास लिखूंगा।
मै छंदों मे सदा झोपडी के ही चित्र बनाऊंगा।
आओ मेरे साथ चलो अन्दर भी लेकर जाऊंगा।
खाली डिहरी ठण्डा चूल्हा बिखरे है कुछ जूठे बरतन ।
टटिया मे टंगे हुए चिथड़े माटी मे है शीतल शीलन।
टूटी खटिया पर प्रायः ही मिल जायेगा बीमार कोई।
है भूख प्यास के साथ -साथ पीडा से भी लडता जीवन।
सत्ता के सारे दावे बस है कोरे बकवास लिखूंगा।
जब भी मेरी कलम उठेगी पीड़ा का एहसास लिखूंगा।
आखों का काजल बालो का गजरा भाया नही मुझे।
किसी नायिका के योवन ने कभी लुभाया नही मुझे।
भूख प्यास के एहसासो को मैने जी कर देखा है।
बुझ जाती है सारी तृष्णा ,आसूं पी कर देखा है।
भला चेतना को झुठला कर कैसे मै उल्लास लिखूंगा
जब भी मेरी कलम उठेगी पीड़ा का एहसास लिखूंग।
ननकू की विधवा को मैने फूट के रोते देखा है।
मंगल के बेटे को मैने भूखा सोते देखा है ।
कुछ पैसो के कर्ज तले दब कर किसान मर जाता है।
जिल्लत से बचने की खातिर फासी पर चढ़ जाता है।
शासन के शुचिता की पोल खोलने को।
नीरव और ललित का सुगम प्रवास लिखूंगा।
जब भी मेरी कलम उठेगी पीड़ा का एहसास लिखूगा।
मेरी कविताओ के नायक डाकू चोर नहीं होंगे।
राज विरासत के अधिकारी राजकिशोर नहीं होंगे।
इन माटी के बेटो का एक अदना सा चारण हूं मै।
और अभाव की पीडाओं का धीमा उच्चारण हूं मै।
राज घरानो की गाथाएं सब लिखते है लिखने दो।
मै निर्धन सम्राटो का इतिहास लिखूंगा।
जब भी मेरी कलम उठेगी पीड़ा का एहसास लिखूगां।
-महेश मिश्र “मानव”
