
ऐसा तो हमने सोचा न था,
जैसे हम दिल बहलाने,
नन्हे बच्चों से पूछते हैं प्रश्न,
बताओ शेर जंगल में रहता है,
मगर कहां रहता है,
बच्चे भोलेपन से प्रत्युत्तर
देते है,
गुफा में, तब हम पूछते हैं,
हमने तो पानी में रहने वाले
मगर के बारे में पूछा था,
बच्चे जिज्ञासा से मुंह ताकने लगते हैं,
ऐसा तो हमने सोचा न था,
आज वही प्रश्न बुजुर्गों के सामने
यक्ष बनकर खड़ा है,
दादा जी आप कहां रहते हैं,
दादाजी उसी मासूमियत से कहते हैं
हम घर में रहते हैं प्रत्युत्तर में,
फिर वही प्रश्न किया जाता है,
कौन से घर में ?
दादा जी सूनी आंखों से,
बिना कुछ कहे,
सब कुछ कह जाते हैं।
खिड़की,दीवारें,छत तो है,
पर उसमें कोई रहता नहीं है,
अब घर वह घर नहीं रह गया,
घर में बूढ़ी दीवारों के साथ बूढ़े ,
पति पत्नी या अकेले होते ,
या घर से परदेस गए बच्चों की
खबर, आहट, और आवाज का
इंतजार करते-करते शायद,
थक कर कच्ची नींद में
बच्चों की तरह
सो चुके होते हैं,
या कभी बूढ़े बूढ़ी के साथ
निकम्मा बेटा, निजी स्कूल में कार्यरत
शिक्षिका पत्नी के युग्म में,
मां पिताजी के इंतकाल की,
बाट जोहता,
अन्यथा बाहर गए
भाई के भेजे पैसे से
घर का राशन लाता वह,
बस ऐसे ही घर होते हैं
आदमीयत नहीं होती उन सब में,
और कहीं
बस लंबा और लंबा इंतजार होता
विदेश गए बेटे के आने का।
और कभी इकलौते निर्गमित,
बेटे को माँ बाप के,
दुखद अवसान की,
खबर तक न हो पाती,
अनजान पराए हाथों से,
होता क्रिया कर्म,
विदेशी बाला और प्रवास,
की चाहत,
करवाती है मां, बाप के
क्रिया कर्म को दुसरों के हाथो पूर्ण,
बूढ़ी मां के बर्फ में रखे गये
कई दिनों के शव को,
पुत्र के
हाथों की अग्नि की गर्मी का
बेताबी से इंतजार होता ,
खाना, दाना, पानी तो
ना दे पाया बेटा,
बर्फीले मां के मुख में,
अग्नि तो दे दे शायद,
ऐसे शेष,अशेष,
अनगिन प्रश्न शून्य में विचरते हैं,
चूके हुए स्खलित प्रश्न ?
कौन से घर में रहते हैं हम?
-संजीव ठाकुर “संजीव-नी”
subscribe aur YouTube channel
