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जनार्दन पाण्डेय “नाचीज़” की कविता; छोड़ो यार भाड़ में जाये!

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किसको इतनी फ़ुर्सत है जो
हर मुश्किल में रोये गाये।
छोड़ो यार भाड़ में जाये।

हम चर्वाक नहीं पर हमने
मस्ती में है सीखा जीना।
अपने सुख की सीमा उतनी
जितना अपना बहे पसीना।
हम अपने उद्धारक खुद हैं
कौन भाग्य को तेल लगाये। छोड़ो यार भाड़ में जाये।

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राम कृष्ण आये धरती पर
सुधर गयी क्या सारी दुनिया?
नचा रहा है कौन जगत को
क्यों सारा जग बना नचनिया?
चार दिनों के इस जीवन में
किसे पड़ी जो पता लगाये। छोड़ो यार भाड़ में जाये।

सुखी वही मनाव है हर पल
वर्तमान में जो जीता है।
और दुखी वह जो अतीत या
आगे की चिंता करता है।
कुछ भी नहीं हाथ में तेरे
फिर क्यूँ कर इतना पछताये। छोड़ो यार भाड़ में जाये।

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सूर्य चंद्रमा के समान ही
दुख जीवन का अटल सत्य है।
दुख को आत्मसात कर के ही
बुद्ध कहे यह आर्यसत्य है।
जीवन भर जो साथ रहेगा
उससे पीछा कौन छुड़ाये। छोड़ो यार भाड़ में जाये।

-जनार्दन पाण्डेय “नाचीज़” (शिक्षक एवं साहित्यकार)

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