
काल के प्रवाह में बहाव में बढ़ते चलो
थके जो पग रुके जो पग तो हौसला बुलंद करो
ये ज़िंदगी की नाव है तो आँधिया तो आयेंगी
मगर तुम अपनी धार से पतवार को खींचे चलो
वो आसमान भी एक दिन शीश को झुकायेगा
बुलंदियाँ तुम्हारी देख काल मुस्कुरायेगा।
सिर झुका के कर मिलाके काल से कहना सुनो
ये तेरा ही प्रवाह था जो खींचता मुझको गया
मैं थक गया मैं रुक गया पर तू सँभालता चला
काल की सीमाओं से निकालता मुझको गया
मैं बस तेरे प्रवाह में बहाव में बढ़ता चला
और धीरे धीरे संग तेरे महाकाल मैं बनता गया।
चुनौतियों की थी लड़ी कठिनाइयाँ भी थी बड़ी
दिशा विहीन राह पे थी मृत्यु द्वार पर खड़ी
विषम कहानियों की हो चली थी प्राण की गति
विवेक शून्य मौन धारणा किए थी ज़िंदगी
उठाके डमरू हाथ में बजाया नाद कान में
कैलाश ने कैलाश के, जगाये प्राण प्राण में।
एकाएक प्रवाह शीश चक्र से प्रारंभ हुआ
रोम रोम में बहाव रक्त का आरंभ हुआ
बजाके डमरू नृत्य कर दृढ़ता से तू खड़ा रहा
मैं श्वासों से था लड़ रहा तू श्वास मेरी बनता रहा
तू चित्त में प्रवेश कर शरीर में समा गया
और धीरे धीरे संग तेरे महाकाल मैं बनता गया।
कर्तव्य पथ की राह में स्वीकारता ख़ुद को गया
काल की सीमाओं को काल ही में समेटता गया
मैं मौन रह के मौन कह के श्वास से जुड़ता गया
मैं तुझमें हूँ तू मुझमें है ये भेद था खुलता गया
तुझे तलाशता हुआ मैं प्राप्त आप में हुआ
और धीरे धीरे संग तेरे महाकाल मैं बनता गया।
-मणि सक्सेना
मुंबई (महाराष्ट्र)