
“संकीर्ण मानसिकता या मानसिक संकीर्णता” दोनों ही रुपों में एक ही बात सामने आ रही है कि हम एक बार शारीरिक रूप से स्वस्थ हो पर विचारों के रूप में कुंठित होकर स्वयं को अस्वस्थ बनाते रहने में स्वयं का योगदान अधिक होता है।
आखिर क्यों?
ये कुटिलता और जटिलता से ग्रसित हो कर अपने ही विचारों को अशुद्ध बनाते हैं, तत्पश्चात मानसिक स्थिति ऐसी बनती जाती है कि स्वयं का आत्मविश्वास खोकर सदैव ही घृणित और विचलित हो कर संकीर्णता विचारों से होते हुए हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है।
जिसके कारण सदैव दूसरों पर आश्रित, दूसरों पर दोषारोपण, दूसरों से कुंठित होकर, स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाते।
अंततः मानसिक संकीर्णता के चलते मानवीय मूल्यों और मानवीय संस्कार, आचार विचार और व्यवहार में परिवर्तन होता जाता है।
मनुष्य ही एक मात्र सामाजिक प्राणी कहा जाता है। न कि पशु एवं पक्षियों, कीट पतंगों को समाजिक माना जाता है।
मनुष्य को ही विवेक प्रदान किया गया है, इस सम्पूर्ण सृष्टि के संचालक का किन्तु वर्तमान समय में सबसे अधिक पतन मनुष्यों के चरित्र और मूल्यों का हो रहा है।
समाज में घट रहे घटनाएं, सूचनाएं हमें सचेत और सावधान रहने का संकेत दे रही है।
मानसिक संकीर्णता एक रोग है जो मनुष्य के व्यक्तित्व और कृतित्व का पतन करता है।
अंततः मनुष्य स्वयं ही पतनोन्मुख हो जाता है।
(… क्रमशः)
(मैने ये विचार संदेश के तौर पर लिखने का प्रयास किया । आगे के दितीय अंक में समाधान भी बताऊंगी।आप सभी पाठकों को सादर प्रणाम करती हूं।)
-अमिता सिंह “अपराजिता” की कलम से
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