अतुल्य भारत चेतना
प्रमोद कश्यप
भारत अणुजन्माओ का देश है। जब जब यह धरती अत्याचारों तथा पापों के बोझ से कराहने लगती है और इसके निर्मल बगिया में पशुता का नग्न नृत्य होने लगता है, तब तब कोई न कोई अणुजन्मा यहां जन्म लेता है। कभी राम और कभी कृष्ण के रूप में कभी गौतम और कभी महावीर के रूप में कभी कबीर और कभी तुलसी के रुप में ।
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पांच शताब्दी पूर्व जब भारतीय समाज रुपी नौका संसार रुपी समुद्र में उथल पुथल हो रही थी, जीर्ण शीर्ण मान्यताएं , अनाचार, दुराचार एवं विभिन्न कुरीतियां सारे समाज को बुरी तरह से ग्रसित कर रही थी। मुगल शासक हिन्दू जनता को अन्याय और क्रुरता की चक्की में पीस रहे थे। सारा समाज जर्जरित हो चुका था, लोगों के मन का उत्साह स्रोत सुख चुका था तथा समस्त हिन्दुओं के हृदय पुष्प मुरझा चुके थे, ऐसे समय में ईश्वर की प्रेरणा से भारतीय समाज के इन समस्त दुष्कृत्यो को समाप्त करने के लिए संवत् १५५४ की श्रावण शुक्ल सप्तमी को तुलसी का प्रादुर्भाव हुआ। कहते हैं जन्म लेते समय बालक तुलसी रोये नहीं बल्कि उनके मुख से राम शब्द निकला। शायद इसी का परिणाम था कि बड़े होने पर उन्होंने भगवान श्रीराम से पृथ्वी के मानवों के हितार्थ रक्षा की पुकार की।
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संवत् १५८३ ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी गुरुवार को एक सुंदरी कन्या के साथ तुलसी का विवाह हुआ। विवाहोपरांत पत्नी प्रेम से ही तुलसी के दिल में सामाजिक प्रेम और राम भक्ति का बीज पड़ा, जो कल्प वृक्ष के रुप में आज इस घोर कलयुग में अपने छांव तले सारे मानव समाज को शीतलता प्रदान करते आ रही है।
तुलसी का सामाजिक क्षेत्र में पदार्पण समन्वय कारी भावना से हुआ। तत्पश्चात वे लोकनायक, लोकरक्षक, धर्म पालक तथा धर्म रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने कबीर की भांति ही बाहरी आडम्बरो का खंडन किया और आलोचना करके सारे मानव समाज को एकता के सूत्र में बांधने का भरसक प्रयास किया।
तुलसी के समय मुसलमान शासकों के अन्याय से हिन्दू धर्म अपने अस्तित्व को खोते जा रही थी। सूफियों के प्रेम पीर तथा कृष्ण का माधुर्य रुप निराशा के सागर में थपेड़े खा रही थी। श्री राम का आदर्श रूप मानव हृदय से दूर जा रही थी, जो इनके शील शक्ति तथा सौंदर्य से समाहित श्रीराम के आदर्श चरित्र वर्णन के फलस्वरूप संतुलन की स्थिति में आ गया। तुलसी के सारे काव्य समन्वय भावना से परिपूर्ण है। इसी का परिणाम था कि सभी धर्म और समुदाय के लोगों ने इनके काव्य से शिक्षा ग्रहण की और आपस में विद्वेष की भावना भूलकर इन्हें समाज सुधार में सहायता प्रदान की।
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तुलसी के काव्य में कहीं भक्ति और ज्ञान का समन्वय, कहीं निर्गुण और सगुण का समन्वय, कहीं भाव और भाषा का समन्वय, कहीं ब्राम्हण और चांडाल का समन्वय सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। और यही इनके काव्य की प्रमुख विशेषता है। इन्होंने साहित्य और धर्म की भाषा छोड़कर लोकभाषा को अपने प्रस्तुति का माध्यम बनाया है। रामचरितमानस इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। इसीलिए उनका यह मानस आज भी भारत के गौरव को पूर्णरुपेण समेटे हुए अनेकता में एकता का आदर्श प्रस्तुत करती है।
तुलसी ने मनोविज्ञान के माध्यम से जनमानस में डुबकियां लगाकर समस्त मानवीय कर्तव्यो की सीपियां निकालकर भारत में व्याप्त विच्छिन्न शक्ति को एक सूत्र में पिरोया। इनके कृतियों में भारत का भूत, वर्तमान एवं भविष्य झांकता है। जब तक भाव और भाषा जिन्दा है, तब तक तुलसी की वाणी भी समस्त भू मंडल में जीवित हैं। ऐसे महान लोकनायक महान संत को मेरा शत शत प्रणाम। जय जय श्रीराम।
मौलिक आलेख- प्रमोद कश्यप, रतनपुर (छ.ग.)